'क्यों'
ऊँचे आसमान में घने बादलों के बीच, उड़ी चल जाती कहीं सोचती हूँ अखियाँ मींच! 'क्यों' उड़ता है मन भरे बादलों के जैसे, सच्चाई-नुमा पहाड़ी से टकरा 'क्यों' बेहता है पानी फिर आँखों से? 'क्यों' कोई ख्वाब आँखों में आता है आख़िर कैसे कोई चेहरा दिल में समाता है ? फिर 'क्यों' नम्म होती हैं किसी की याद में आँखें, दिल बार बार रो कर 'क्यों' ज़ार ज़ार हो जाता है ? चाहतों के दाएरे में बाँध कर 'क्यों' इंसान समझ अपनी खोता है वास्तविकता समझ कर भी 'क्यों' परिस्तित्यों के हाथों मजबूर होता है ? फिर भी, दर्द से झूझ कर दर्द से ही शक्ति पा, 'क्यों', दर्द भारी यादें संजोता है दर्द से ही रिश्ता बनाता है